सचमुच टीपू न बन जाय अखिलेश !
यूपी के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को भले ही बचपन में टीपू के नाम से पुकारा जाता हो लेकिन इसी नाम ने उन्हें इतिहास के मुहाने पर ला खड़ा किया है ।दरअसल इसकी शुरुआत शिवपाल यादव और अखिलेश यादव के बीच बर्चस्व के संघर्ष से हुई , लेकिन इसके बाद सबकुछ ऊपर से ठीक होता दिखा । बावजूद इसके सभी को लग रहा था कि यह तूफ़ान के पहले की खामोशी भर है । अब जबकि अखिलेश यादव ने सीधे प्रत्याशियों की सूची अपनी तरफ से मुलायम सिंह यादव को सौप दी है तो चचा शिवपाल जा नाराज होना स्वाभाविक भी है । यंहा यह जानना जरूरी होगा कि चुनाव के बाद अगर किसी का बहुमत होता है तो जीते हुए विधायक मुख्यमंत्री का चुनाव करते है । ऐसे में प्रत्याशी का चयन बहुत मायने रखता है जिसके खेमे का जितना प्रत्याशी जीत कर आयेगा पार्टी में बर्चस्व उसी का होगा । यही कारण है है कि टिकट की सूची को लेकर घमासान होना तय है । यह घमासान मुलायम सिंह के द्वारा अथक परिश्रम से खड़ी जी गई समाजवादी पार्टी को टूटन की और धकेल सकता है । इसका फैसला आने वाले चंद दिनों में ही हो जाएगा और यही कुछ दिन अखिलेश और समाजवादी पार्टी के लिए अहम् होने वाले है । लेकिन इतिहास तो बस टीपू की और टकटकी लगाए ही देख रहा है कि क्या टीपू की वही इबारत एक बार फिर उसको लिखनी पड़ेगी । ऐसा हम इसलिए कह रहे है क्योंकि कुछ इतिहासकारों का मानना था कि टीपू में बहादुरी , जनता के प्रति कर्तव्य परायणता और कुशल सेनापति सभी गुण मौजूद थे लेकिन वह अपने पिता हैदर अली की तरह दूरदर्शी नहीं था साथ ही वह अपने लोगो से अधिक फ्रांसीसी लोगो पर विश्वास करता था जिसने न सिर्फ उसकी हार की पटकथा लिखी थी बल्कि पिता हैदर अली द्वारा बनाये गए राज्य को भी अंग्रेजो के हाथों गवां दिया था । अब देखना दिलचस्प होगा कि टीपू इतिहास को बदलने का सामर्थ्य रखते है या अपने नाम के इतिहास को एक बार फिर उन्ही अक्षरों में दर्ज करा लेते है … ?